कितना भी दुःख हो शोक तुम नहीं करना
है कृष्ण का सन्देश शोक मत करना
याद आये जब दिल में अपने दुखों की
तुम याद कोई बलिदान कर लेना
चौदह साल का बालक एक हकीकत था
जंजीरों में जकड़ा खड़ा दरबार में था
काजी ने पूछा क्या है ईमान क़ुबूल?
रहना है जिन्दा तुझको या मरना है क़ुबूल?
उसने चेहरा उठा के देखा काजी की तरफ
सबकी नजरें थीं उठीं लेकिन बालक की तरफ
स्याने सब कह रहे थे कर ले ईमान क़ुबूल
शोर सब ओर से होता था कर ईमान क़ुबूल
नम आँखों से एक बार बस माँ को देखा
उन आँखों में आंसू का समंदर देखा
एक हाथ से था पोंछता माँ के आंसू
दूजे हाथ से था पोंछता अपने आंसू
हिल गए ये नजारा देख पत्थर भी
रुक रुक के देखने लगे परिंदे भी
इतने में अचानक एक शोर हुआ
तकबीर का नारा फिर बुलंद हुआ
काजी ने कहा फिर से- है ईमान क़ुबूल?
भीड़ से शोर उठा- कर ले ईमान क़ुबूल!
इतने में हकीकत गरजा सुन काजी!
तुम कहते हो मैं कर लूं ईमान क़ुबूल?
हकीकत को तो बस राम का है नाम कबूल
राम के भक्त कभी बनते हैं गुलाम ए रसूल?
‘धर्म जिस जीने से खो जाए वो जीना है फिजूल’
धर्म जिस मरने से जी जाए वो मरना है मंजूर
धर्म प्यारा है मुझे है नहीं ईमान क़ुबूल
तेरा दीं तुझको मुबारक नहीं ईमान क़ुबूल
छाया था सन्नाटा मुग़ल के खेमे में
दिल शेर का है क्या इस कलेजे में
काजी ने कहा कर दो सर इसका कलम
गुस्ताख को मारो करो फितने को खतम
था तैयार भी जल्लाद काम करने को
तलवार जो उठी तो लगी गर्दन को
अगले ही पल वो सर हुआ जुदा तन से
एक धुन सी उठ रही थी उस गर्दन से
धर्म की राह में मर जाते हैं मरने वाले
‘मरके जी उठते हैं जी जाँ से गुजरने वाले’
कितना ही अँधेरा क्यों न हो दुनिया में
कितनी ही विपत्ति क्यों न हों जीवन में
हरा के उनको धर्म पे बढते जाना
बलिदान हकीकत का सुनाते जाना…
– वाशि शर्मा
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वीर रस की कविता में लय और माधुर्य तो नहीं हो सकता पर बड़ी मात्राओं से असर बढ़ जाता है ।